अपठित गधांश
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आटा चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर गुसांईं घट के अंदर चला गया. खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था. खप्पर में एक कम अन्नवाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिड़ियों को उल्टा कर दिया. वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा. केवल चक्की के ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का-धीमा संगीत चल रहा था. तभी गुसांईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, “कब बारी आएगी, जी ? रात की राटी के लिए भी घर में आटा नहीं है.”
सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी. गुसांईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा. चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा. पर गुसांईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा.
घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्न का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसांईं के पूरे शरीर पर छा गया था. इस कृत्रिम सफेदी के कारण वह वृद्ध-सा दिखाई दे रहा था. स्त्री ने भी उसे नहीं पहचाना. उसने दुबारा वही शब्द दुहराए. इस बार गुसांई न टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, “यहां पहले की टीला लगा है, जल्दी नहीं होगा.”
स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की. शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी.
मुड़ते समय स्त्री की एक झलक देखकर गुसांईं को संदेह विश्वास में बदल गया था. उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया. गुसांईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई. इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नही रोक पाया, उसने पुकारा, ”लछमा !“
”मुझे पुकार रहे हैं, जी ?
”हां, ले आ, हो जाएगा ।“
गुसांईं की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर उसने निकट आते-आते कहा, “तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी ! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने !
“मायके कब आई ?”
दड़िम की छाया में बैठते हुए लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसांईं की ओर देखा. कोसी नदी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आशचर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसांईं को इस रूप में देखने पर हुआ. विस्मय से आंखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसांईं ही है.
”तुम ?“ शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए.
“हां, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया."
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसांई ने पूछा, “तू अभी और कितने दिन मायके ठहरनेवाली है ?"
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप् - टप् - टप्, वह सर नीचा किए आँसू गिराने लगी.
इतनी देर बाद सहसा गुसांई का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया. उसके गले में चरेऊ (सुहाग - चिह्न) नहीं था । हतप्रभ-सा गुसांई उसे देखता रहा. अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुंझलाहट हो रही थी.
गुसांई की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आंसू पोंछती हुई अपना दुखड़ा रोने लगी, “जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता. जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुडाकर यहां मां की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़ कर चली गई. मुझे अभागिन का बस एक छोटा बेटी बचा रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है. नहीं तो पेट पर पत्थर बांधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता.”
- गुसांईं घटवार बनने से पहले क्या करता था ?
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NA
सही विकल्प: B
गुसांईं घटवार बनने से पहले पल्टन यानि फौज में था।
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यह उस जमाने की बात है जब बी.ए. की पढ़ाई का बहुत महत्व था और विरले ही ग्रेजुएट हो पाते थे। सर्वदयाल भी ग्रेजुएट होना चाहते थे। उनके माता-पिता की इतनी हैसियत न थी कि कालेज के खर्च सह सकें। उनके मामा एक ऊंचे पद पर नियुक्त थे। उन्होंने खर्च देना स्वीकार । किया, परंतु यह भी जोड़ दिया-"देखो, रुपया लहू बहाकर मिलता है। मैं वृद्ध हूं, जान मारकर चार पैसे कमाता हूँ। लाहौर जा रहे हो, वहां पग-पग पर व्याधियां हैं, कोई चिमट न जाए। व्यसनों से बचकर डिग्री लेने का यत्न करो। यदि मुझे कोई ऐसा-वैसा समाचार मिला, तो खर्च भेजना बंद कर दूगा।" सर्वदयाल ने वृद्ध मामा की बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा, और अपने आचार-विचार से न केवल उनकी शिकायत का ही अवसर नहीं दिया, बल्कि उनकी आंख की पुतली भी बन गए। परिणाम यह हुआ कि मामा ने सुशील भानजे को पहले से ज्यादा रुपये भेजने शुरू कर दिए। इससे सर्वदयाल का उत्साह बढ़ा। पहले सात पैसे की जुराबें पहनते थे, अब पांच आने की पहनने लगे । पहले मलमल के रूमाल रखते थे, अब एटोनिया के रखने लगे। दिन को पढ़ने और रात को जागने से सिर में कभी-कभी पीड़ा होने लगती थी, कारण यह कि दूध के लिए पैसे न थे। परंतु अब जब मामा ने खर्च की डोरी ढीली छोड़ दी, तो घी-दूध दोनों की तंगी न रही। परंतु इन सबके होते हुए भी सर्वदयाल । उन व्यसनों से बचे रहे, जो शहर के विद्यार्थियों में प्राय: पाये जाते हैं।
इसी प्रकार चार वर्ष बीत गए। सर्वाद्याल बी.ए. की डिग्री लेकर घर आ गए। जब तक पढ़ते थे, सैकड़ों नौकरियां दिखाई देती थीं। परंतु पास हुए, तो कोई ठिकाना न दीख पड़ा। वह घबरा गए। जिस प्रकार यात्री मीलों चल-चल कर स्टेशन पर पहुंचे, परंतु रेलगाड़ी में स्थान न मिले। उस समय उसकी जो दुर्दशा होती है, ठीक वही सर्वदयाल की थी। उनके पिता पंडित शंकरदत पुराने जमाने के आदमी थे। उनका विचार था कि बेटा अंग्रेजी बोलता है, पतलून पहनता है, नेकटाई लगाता है, तार तक पढ़ लेता है, इसे नौकरी न मिलेगी, तो और किसे मिलेगी? परंतु जब बहुत दिन गुजर गए और सर्वदयाल को कोई आजीविका न मिली, तो उनका धीरज छूट गया। बेटे से बोले-'’अब तू कुछ नौकरी भी करेगा या नहीं? मिडिल पास लौंडे रुपयों से घर भर देते हैं। एक तू है कि पढ़ते-पढ़ते बाल सफेद हो गए, परंतु हाथ पर हाथ धरे बैठा है।' सर्वदयाल के कलेजे में मानों किसी ने तीर-सा मार दिया। सिर झुका कर बोले-'नौकरियां तो बहुत मिलती हैं, परंतु वेतन बहुत कम मिलता है, इसलिए देख रहा हूँ कि कोई अच्छा अवसर हाथ आ जाय, तो करूं।' शंकरदत्त ने उत्तर दिया-‘‘यह तो ठीक है, परंतु जब तक अच्छी न मिले, मामूली ही कर लो। जब अच्छी मिले, इसे छोड़ देना।" सर्वदयाल चुप हो गए, वे उत्तर न दे सके। शंकरदत्त, पूजापाठ करने वाले आदमी, इस बात को क्या समझें कि कभी ग्रेजुएट भी साधारण नौकरी कर सकता है?
- गद्यांश में प्रयुक्त हाथ पर हाथ धरे बैठा है के स्थान पर निम्न में से किस विकल्प को रख देने से वाक्य के अर्थ में परिवर्तन नहीं होगा ?
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NA
सही विकल्प: D
' हाथ पर हाथ धरे बैठा है ' का अर्थ है ' कोई उद्यम नहीं करता है ' वाक्य रखने से अर्थ में परिवर्तन नहीं होगा।
Direction: इन प्रश्नों बाईं ओर के शब्द गद्यांश से लिए गए हैं, और मोटे अक्षरों में छापे हैं। आपको दिए गए पांचों विकल्पों में से उस शब्द का चयन करना है जो मोटे छापे का समानार्थीहै।
- परिचित
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NA
सही विकल्प: C
' परिचित ' का समानार्थी शब्द ' अभिज्ञ ' है।
- विस्मय
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NA
सही विकल्प: D
' विस्मय ' का समानार्थी शब्द ' अचंभा ' है।
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- नारी
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NA
सही विकल्प: E
' नारी ' का समानार्थी शब्द वामा, ललना , वनिता, और रमणी है।